वरिष्ठ पत्रकार सुधीर जैन ने बेहतरीन शब्दों में कन्हैया के भाषण का विश्लेष्ण किया है, पढ़िय उनका पूरा लेख।
वह देशभक्ति का झरना-सा बहाता चला गया। कन्हैया कुमार का 50 मिनट का तार्किक भाषण सुनते हुए उन लोगों को भी पता चल रहा होगा, जिन्हें यह समझ में नहीं आ रहा था कि अपने एक छात्र की नैतिक सुरक्षा में जेएनयू के प्रोफेसर सड़क पर क्यों निकल आए थे। अंदाजा है कि गुरुवार की रात जेल से जमानत पर रिहा होने के बाद कन्हैया को सुनकर विश्व के तमाम विश्वविद्यालयों के परिसरों में छात्र अभिभूत हो गए होंगे। कन्हैया के भाषण की दूसरी भाषाओं में डबिंग शुरू हो गई होगी। याद नहीं पड़ता कि तार्किकता का ऐसा प्रभुत्व कायम होते कब दिखा था।
देश में कहने-बोलने में बढ़ते भय के बीच जेएनयू मामले के इतना बढ़ जाने के कई कारण हो सकते हैं। आगे-पीछे सारी बातें पता चलेंगी, लेकिन इस मामले ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, लोकतंत्र, सांप्रदायिकता और ऐसे दूसरे मुद्दों पर सोच-विचार के लिए एक बड़ा मौका पैदा कर दिया। जेएनयू में कन्हैया के भावपूर्ण नेतृत्व में घंटे भर के इस अपूर्व आयोजन में वाद्ययंत्रों की ज़रूरत नहीं पड़ी। आयोजन के फौरन बाद सोशल मीडिया पर कन्हैया का क्रांतिगीत ट्रेंड होने लगा। अब जल्द ही पलटकर इस बात भर भी ध्यान जाएगा कि जेएनयू का मामले का आगा-पीछा है क्या...? वक्त जितना भी लगे।
तार्किकों के भयभीत रहने के तीन हफ्ते...
फिलहाल हमारे पास ऐसा इंतज़ाम नहीं है कि जेएनयू प्रकरण पर निर्विवाद राय दे सकें, क्योंकि माहौल ऐसा बना दिया गया है कि हर मशविरे को मामले के किसी पक्षकार की वकालत माना जाने लगा है। इसके साथ ही कन्हैया प्रकरण के जरिये कुछ दिनों के लिए तार्किकों के खिलाफ ऐसा माहौल बना दिया गया था कि उनके बोलते ही वे अविश्वसनीय लगने लगें। फिर भी अकादमिक स्तर पर कुछ जटिल बातों पर चर्चाएं शुरू होना स्वाभाविक है।
सवाल लोकतंत्र की सबसे बड़ी खासियत का भी उठेगा...
लोकतंत्र की सबसे बड़ी खासियत की पहचान अब तक नहीं हो पाई है। एक पहचान समानता के रूप में हुई थी, लेकिन आग्रही और जिद्दी वर्ग ने हमेशा ऐसा माहौल बनाए रखा कि हम कभी भी इस बात का आम राय से ऐलान कर नहीं पाए। ज़रूरत पड़ने पर कभी-कभी सैद्धांतिक रूप से इसे मान लेते हैं, लेकिन व्यवहार में समानता का प्रभुत्व दिखाई नहीं देता। 'हम' की भावना वाले समाज के रूप में भी लोकतंत्र को परिभाषित नहीं होने दिया जाता। कुछ लोग धर्म, कुछ लोग जाति और कुछ भौगोलिक क्षेत्र की अपनी-अपनी अस्मिता का फच्चर फंसा देते हैं। यानी 'हम' वाले भाव के सामने 'मैं' वाले भाव को लाकर खड़ा कर देते हैं।
ऐसा नहीं है कि यह तय न हो सके कि क्या सही है और क्या गलत, लेकिन इसके लिए सोच-विचार और वाद-विवाद की ज़रूरत पड़ती है। यहीं पर वह स्थिति आ सकती है कि अस्मितावादी कहें कि अस्मिता के मामले में तो कोई बात सुनने का सवाल ही नहीं। बहुत संभव है, इसीलिए होता हो कि सही-गलत का फैसला करने के वाद-विवाद पर पाबंदी लगने या लगाने की सूरत बनती हो।
गुज़रा तो नहीं जा रहा है अभिव्यक्ति की आज़ादी का दौर...
गांधी, नेहरू, इंदिरा, राजीव, अटल, मनमोहन और मोदी के अपने-अपने दौरों में लोकतंत्र के विकास-अविकास के मामले में क्या हुआ, इसका कोई निर्विवाद लेखा-जोखा बन नहीं पाया है। आजाद भारत के शुरुआती दशकों में जब अभिव्यक्ति की चरम-परम स्वतंत्रता का दौर था, तब भी आज़ादी के बारे में या समानता के बारे में और उसे हासिल करने के बारे में हानिरहित उपायों को ढूंढते ही रहे। इसी तलाश में वाद-विवाद और संवाद होते हैं। वाद-विवाद की पहली ज़रूरत अभिव्यक्ति की आज़ादी होती है।
यहां यही विषय है। ज़ाहिर है, इस बारे में कुछ भी सोचने की प्रक्रिया में बाधा के रूप में बौद्धिक अधिनायकवाद या बौद्धिक आतंकवाद का विषय डाला ही जाएगा। डाला क्या जाएगा, लगभग डाल दिया गया है। बुद्धिजीवी वर्ग के सामने यह बिल्कुल नई चुनौती है। खासतौर पर तर्कशास्त्रियों पर यह जिम्मेदारी आन पड़ी है कि बहुत कम समय लगा साफ करें कि बौद्धिकता या बौद्धिक कर्म या विचार-विमर्श किसी भी रूप में आतंकवाद हो भी सकता है या नहीं।
सही और गलत का फैसला करने का कौन-सा उपाय बचेगा...?
पूरे देश में 10वीं कक्षा के पाठ्यक्रम में नैतिकता की परिभाषा पढ़ाई जाती है। इसमें बतायाा जाता है कि सही और गलत का फर्क समझना ही नैतिकता का काम है। इस पाठ्यक्रम में बच्चों पर ज्यादा बोझ नहीं डाला जाता। उन्हें नागरिक शास्त्र, समाजशास्त्र के सरल-सरल-से सिद्धांत बता दिए जाते हैं, ताकि वे आगे के जीवन में सही-गलत के फर्क को समझने लायक हो जाएं। तर्कशक्ति बढ़ाने के लिए इन बच्चों में निबंध लिखने की क्षमता बढ़ाने की कवायद की जाती है। निबंध लिखने के लिए उसे निर्बंध कर दिया जाता है। उसे बने-बनाए उपदेश नहीं दिए जाते कि इस विषय पर निबंध के लिए यही विचार लिखना है। हां, समाज विज्ञानों की पढ़ाई के बाद इम्तिहान में विद्वानों द्वारा सत्यापित विचार ही लिखने होते हैं, जो बहुत सोच-विचार के बाद, यानी वाद-विवाद के बाद ही बने होते हैं। यानी, हर स्तर पर सही-गलत के फैसले विचार-विमर्श से ही होते हैं।
अदालत में भी बहस से ही तय होता है सही-गलत...
दुनियाभर की सभी राजनीतिक व्यवस्थाओं के न्यायतंत्र में आज तक भी सुनवाई या बहस का चलन है। एक से एक खूंखार राज व्यवस्था में भी सज़ा देने से पहले आरोपी को तफसील से सुनने की रस्म ज़रूर निभाई जाती है, लेकिन अगर सही और गलत के बीच फैसले की प्रक्रिया में प्रतिवादी को सुनवाई से पहले ही मारने या सज़ा देने की तरफदारी की जाने लगे तो क्या भारी चिंता की बात नहीं है।
यह बात पहले से सनद है और काम आने लिए यह सही वक्त है कि ब्रिटिश शासन के दौरान रॉलेट एक्ट का आना, यानी अपील, वकील और दलील पर पाबंदी लगाया जाना सबसे सनसनीखेज पर्व था। पूरे आंदोलन के सफल होने का यह बड़ा कारण बना था। आज़ादी के बाद तो हमने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को धर्म मानकर उसे सबसे ऊपर बनाए रखा। उसे इतना महत्व दिया कि किसी आपातस्थिति में उस पर अस्थायी पाबंदी के लिए संविधान में प्रबंध तक किया, ताकि स्वतंत्रता और स्वच्छंदता में भेद की गुंजाइश बनी रहे।
यानी, ऐसा भी कतई नहीं है कि हमारे पूर्वजों ने स्वतंत्रता के नाम पर स्वच्छदंता की विकट परिस्थिति में आपातकाल लागू करने का संवैधानिक और नैतिक प्रबंध न कर रखा हो। इसका सबसे अच्छा उदाहरण हमारे अपने भूखंड में ही पाया जाता है। वह बताता है कि संकट का समय गुज़रते ही हालात बहाली भी कितनी आसानी से हो सकती है। सनद रहे, आपातकाल हटाए जाने के लिए हिंसा या अनैतिक उपायों का अस्त्र चलाने की ज़रूरत नहीं पड़ी थी। आपातकाल संवैधानिक व्यवस्था के उपाय से ही हटा था। आपातकाल लगाने वाली उसी सत्ता ने जनता की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बहाल की थी।
जेल में बंद आपातकाल से पीड़ित वर्ग आपातकाल हटने के फैसले से भौंचक रह गया था। लोकतंत्र और तंदुरुस्त होकर और आगे बढ़ा था। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का ही कमाल था कि आपातकाल के पीड़ित वर्ग को सत्ता मिल गई थी। वह अलग बात है कि अभिव्यक्ति की आज़ादी का ही कमाल था कि कार्यकाल खत्म होने से पहले ही जनता ने उन्हें नकार भी दिया था। अभिव्यक्ति की आज़ादी का उससे भी बड़ा कमाल देखिए कि उसी जनता ने आपातकाल लगाने वाली सत्ता को फिर सत्ता में ला दिया। यानी अब तक कुख्यात बताया जाने वाला आपातकाल तक हमारे लोकतांत्रिक न्यायतंत्र की मर्यादाओं से होकर गुज़रा था। ऐसा तो तब भी नहीं हुआ था कि आपातकाल का ऐलान किए बगैर बोलने-कहने पर पाबंदी लगाने की कोशिश होने लगे। ऐसे मुद्दों पर सोच-विचार की बातें हम गली-कूचे में बैठे पत्रकार या मीडिया के ग्राहक बेखौफ होकर नहीं कर सकते।
फिर कौन समझ या समझा सकते हैं देश के हालात...?
अरे, जब निरे रुपये-पैसे का हिसाब करने वाला देश का बजट समझाने में ही परेशान दिखे, तो लोकतंत्र या अभिव्यक्ति की आज़ादी जैसी जटिल बातों को छोटे वाले विद्वान क्या समझा पाएंगे। अपनी-अपनी विचारधारा को जान-सा प्यारा मानने का आग्रह रखने वाले लोग दूरअंदेशी बातों को समझने के पचड़े में क्यों पड़ेंगे...? बचते हैं वे विद्वान, जिनका उद्यम ही, यानी काम ही सोचना-समझना है। ऐसे में सारी जिम्मेदारी इन पढ़ने-पढ़ाने वाले अकादमिक लोगों पर आना स्वाभाविक है।
उनके अलावा अकादमिक रुझान के लेखकों-पत्रकारों से हमेशा ही उम्मीद लगी रहती है। लेकिन इन सबको हम मुश्किल में पड़ता देख रहे हैं। उनकी विश्वसनीयता पर हमला, भौतिक धक्का-मुक्की का डर, देशद्रोह के भावनात्मक आरोपों का बढ़ता प्रजनन फिर भी उतने बड़े संकट नहीं है। विद्वानों को फुसलाया जाना ज्यादा बड़ा संकट दिख रहा है। अगर वाकई ऐसा हो रहा होगा तो यह अंदेशा भी है कि यह तबका आदर्श साध्य के लिए घोर अनैतिकता के उपाय को सही साबित करने के काम पर लगा दिखे। तब भी इतिहास हमें यकीन दिलाता है कि नैतिकताशून्य स्थिति कभी नहीं आती। कन्हैया प्रकरण और खुद कन्हैया को सुनने के बाद क्या यह बात सही नहीं लगती...?
वह देशभक्ति का झरना-सा बहाता चला गया। कन्हैया कुमार का 50 मिनट का तार्किक भाषण सुनते हुए उन लोगों को भी पता चल रहा होगा, जिन्हें यह समझ में नहीं आ रहा था कि अपने एक छात्र की नैतिक सुरक्षा में जेएनयू के प्रोफेसर सड़क पर क्यों निकल आए थे। अंदाजा है कि गुरुवार की रात जेल से जमानत पर रिहा होने के बाद कन्हैया को सुनकर विश्व के तमाम विश्वविद्यालयों के परिसरों में छात्र अभिभूत हो गए होंगे। कन्हैया के भाषण की दूसरी भाषाओं में डबिंग शुरू हो गई होगी। याद नहीं पड़ता कि तार्किकता का ऐसा प्रभुत्व कायम होते कब दिखा था।
देश में कहने-बोलने में बढ़ते भय के बीच जेएनयू मामले के इतना बढ़ जाने के कई कारण हो सकते हैं। आगे-पीछे सारी बातें पता चलेंगी, लेकिन इस मामले ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, लोकतंत्र, सांप्रदायिकता और ऐसे दूसरे मुद्दों पर सोच-विचार के लिए एक बड़ा मौका पैदा कर दिया। जेएनयू में कन्हैया के भावपूर्ण नेतृत्व में घंटे भर के इस अपूर्व आयोजन में वाद्ययंत्रों की ज़रूरत नहीं पड़ी। आयोजन के फौरन बाद सोशल मीडिया पर कन्हैया का क्रांतिगीत ट्रेंड होने लगा। अब जल्द ही पलटकर इस बात भर भी ध्यान जाएगा कि जेएनयू का मामले का आगा-पीछा है क्या...? वक्त जितना भी लगे।
तार्किकों के भयभीत रहने के तीन हफ्ते...
फिलहाल हमारे पास ऐसा इंतज़ाम नहीं है कि जेएनयू प्रकरण पर निर्विवाद राय दे सकें, क्योंकि माहौल ऐसा बना दिया गया है कि हर मशविरे को मामले के किसी पक्षकार की वकालत माना जाने लगा है। इसके साथ ही कन्हैया प्रकरण के जरिये कुछ दिनों के लिए तार्किकों के खिलाफ ऐसा माहौल बना दिया गया था कि उनके बोलते ही वे अविश्वसनीय लगने लगें। फिर भी अकादमिक स्तर पर कुछ जटिल बातों पर चर्चाएं शुरू होना स्वाभाविक है।
सवाल लोकतंत्र की सबसे बड़ी खासियत का भी उठेगा...
लोकतंत्र की सबसे बड़ी खासियत की पहचान अब तक नहीं हो पाई है। एक पहचान समानता के रूप में हुई थी, लेकिन आग्रही और जिद्दी वर्ग ने हमेशा ऐसा माहौल बनाए रखा कि हम कभी भी इस बात का आम राय से ऐलान कर नहीं पाए। ज़रूरत पड़ने पर कभी-कभी सैद्धांतिक रूप से इसे मान लेते हैं, लेकिन व्यवहार में समानता का प्रभुत्व दिखाई नहीं देता। 'हम' की भावना वाले समाज के रूप में भी लोकतंत्र को परिभाषित नहीं होने दिया जाता। कुछ लोग धर्म, कुछ लोग जाति और कुछ भौगोलिक क्षेत्र की अपनी-अपनी अस्मिता का फच्चर फंसा देते हैं। यानी 'हम' वाले भाव के सामने 'मैं' वाले भाव को लाकर खड़ा कर देते हैं।
ऐसा नहीं है कि यह तय न हो सके कि क्या सही है और क्या गलत, लेकिन इसके लिए सोच-विचार और वाद-विवाद की ज़रूरत पड़ती है। यहीं पर वह स्थिति आ सकती है कि अस्मितावादी कहें कि अस्मिता के मामले में तो कोई बात सुनने का सवाल ही नहीं। बहुत संभव है, इसीलिए होता हो कि सही-गलत का फैसला करने के वाद-विवाद पर पाबंदी लगने या लगाने की सूरत बनती हो।
गुज़रा तो नहीं जा रहा है अभिव्यक्ति की आज़ादी का दौर...
गांधी, नेहरू, इंदिरा, राजीव, अटल, मनमोहन और मोदी के अपने-अपने दौरों में लोकतंत्र के विकास-अविकास के मामले में क्या हुआ, इसका कोई निर्विवाद लेखा-जोखा बन नहीं पाया है। आजाद भारत के शुरुआती दशकों में जब अभिव्यक्ति की चरम-परम स्वतंत्रता का दौर था, तब भी आज़ादी के बारे में या समानता के बारे में और उसे हासिल करने के बारे में हानिरहित उपायों को ढूंढते ही रहे। इसी तलाश में वाद-विवाद और संवाद होते हैं। वाद-विवाद की पहली ज़रूरत अभिव्यक्ति की आज़ादी होती है।
यहां यही विषय है। ज़ाहिर है, इस बारे में कुछ भी सोचने की प्रक्रिया में बाधा के रूप में बौद्धिक अधिनायकवाद या बौद्धिक आतंकवाद का विषय डाला ही जाएगा। डाला क्या जाएगा, लगभग डाल दिया गया है। बुद्धिजीवी वर्ग के सामने यह बिल्कुल नई चुनौती है। खासतौर पर तर्कशास्त्रियों पर यह जिम्मेदारी आन पड़ी है कि बहुत कम समय लगा साफ करें कि बौद्धिकता या बौद्धिक कर्म या विचार-विमर्श किसी भी रूप में आतंकवाद हो भी सकता है या नहीं।
सही और गलत का फैसला करने का कौन-सा उपाय बचेगा...?
पूरे देश में 10वीं कक्षा के पाठ्यक्रम में नैतिकता की परिभाषा पढ़ाई जाती है। इसमें बतायाा जाता है कि सही और गलत का फर्क समझना ही नैतिकता का काम है। इस पाठ्यक्रम में बच्चों पर ज्यादा बोझ नहीं डाला जाता। उन्हें नागरिक शास्त्र, समाजशास्त्र के सरल-सरल-से सिद्धांत बता दिए जाते हैं, ताकि वे आगे के जीवन में सही-गलत के फर्क को समझने लायक हो जाएं। तर्कशक्ति बढ़ाने के लिए इन बच्चों में निबंध लिखने की क्षमता बढ़ाने की कवायद की जाती है। निबंध लिखने के लिए उसे निर्बंध कर दिया जाता है। उसे बने-बनाए उपदेश नहीं दिए जाते कि इस विषय पर निबंध के लिए यही विचार लिखना है। हां, समाज विज्ञानों की पढ़ाई के बाद इम्तिहान में विद्वानों द्वारा सत्यापित विचार ही लिखने होते हैं, जो बहुत सोच-विचार के बाद, यानी वाद-विवाद के बाद ही बने होते हैं। यानी, हर स्तर पर सही-गलत के फैसले विचार-विमर्श से ही होते हैं।
अदालत में भी बहस से ही तय होता है सही-गलत...
दुनियाभर की सभी राजनीतिक व्यवस्थाओं के न्यायतंत्र में आज तक भी सुनवाई या बहस का चलन है। एक से एक खूंखार राज व्यवस्था में भी सज़ा देने से पहले आरोपी को तफसील से सुनने की रस्म ज़रूर निभाई जाती है, लेकिन अगर सही और गलत के बीच फैसले की प्रक्रिया में प्रतिवादी को सुनवाई से पहले ही मारने या सज़ा देने की तरफदारी की जाने लगे तो क्या भारी चिंता की बात नहीं है।
यह बात पहले से सनद है और काम आने लिए यह सही वक्त है कि ब्रिटिश शासन के दौरान रॉलेट एक्ट का आना, यानी अपील, वकील और दलील पर पाबंदी लगाया जाना सबसे सनसनीखेज पर्व था। पूरे आंदोलन के सफल होने का यह बड़ा कारण बना था। आज़ादी के बाद तो हमने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को धर्म मानकर उसे सबसे ऊपर बनाए रखा। उसे इतना महत्व दिया कि किसी आपातस्थिति में उस पर अस्थायी पाबंदी के लिए संविधान में प्रबंध तक किया, ताकि स्वतंत्रता और स्वच्छंदता में भेद की गुंजाइश बनी रहे।
यानी, ऐसा भी कतई नहीं है कि हमारे पूर्वजों ने स्वतंत्रता के नाम पर स्वच्छदंता की विकट परिस्थिति में आपातकाल लागू करने का संवैधानिक और नैतिक प्रबंध न कर रखा हो। इसका सबसे अच्छा उदाहरण हमारे अपने भूखंड में ही पाया जाता है। वह बताता है कि संकट का समय गुज़रते ही हालात बहाली भी कितनी आसानी से हो सकती है। सनद रहे, आपातकाल हटाए जाने के लिए हिंसा या अनैतिक उपायों का अस्त्र चलाने की ज़रूरत नहीं पड़ी थी। आपातकाल संवैधानिक व्यवस्था के उपाय से ही हटा था। आपातकाल लगाने वाली उसी सत्ता ने जनता की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बहाल की थी।
जेल में बंद आपातकाल से पीड़ित वर्ग आपातकाल हटने के फैसले से भौंचक रह गया था। लोकतंत्र और तंदुरुस्त होकर और आगे बढ़ा था। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का ही कमाल था कि आपातकाल के पीड़ित वर्ग को सत्ता मिल गई थी। वह अलग बात है कि अभिव्यक्ति की आज़ादी का ही कमाल था कि कार्यकाल खत्म होने से पहले ही जनता ने उन्हें नकार भी दिया था। अभिव्यक्ति की आज़ादी का उससे भी बड़ा कमाल देखिए कि उसी जनता ने आपातकाल लगाने वाली सत्ता को फिर सत्ता में ला दिया। यानी अब तक कुख्यात बताया जाने वाला आपातकाल तक हमारे लोकतांत्रिक न्यायतंत्र की मर्यादाओं से होकर गुज़रा था। ऐसा तो तब भी नहीं हुआ था कि आपातकाल का ऐलान किए बगैर बोलने-कहने पर पाबंदी लगाने की कोशिश होने लगे। ऐसे मुद्दों पर सोच-विचार की बातें हम गली-कूचे में बैठे पत्रकार या मीडिया के ग्राहक बेखौफ होकर नहीं कर सकते।
फिर कौन समझ या समझा सकते हैं देश के हालात...?
अरे, जब निरे रुपये-पैसे का हिसाब करने वाला देश का बजट समझाने में ही परेशान दिखे, तो लोकतंत्र या अभिव्यक्ति की आज़ादी जैसी जटिल बातों को छोटे वाले विद्वान क्या समझा पाएंगे। अपनी-अपनी विचारधारा को जान-सा प्यारा मानने का आग्रह रखने वाले लोग दूरअंदेशी बातों को समझने के पचड़े में क्यों पड़ेंगे...? बचते हैं वे विद्वान, जिनका उद्यम ही, यानी काम ही सोचना-समझना है। ऐसे में सारी जिम्मेदारी इन पढ़ने-पढ़ाने वाले अकादमिक लोगों पर आना स्वाभाविक है।
उनके अलावा अकादमिक रुझान के लेखकों-पत्रकारों से हमेशा ही उम्मीद लगी रहती है। लेकिन इन सबको हम मुश्किल में पड़ता देख रहे हैं। उनकी विश्वसनीयता पर हमला, भौतिक धक्का-मुक्की का डर, देशद्रोह के भावनात्मक आरोपों का बढ़ता प्रजनन फिर भी उतने बड़े संकट नहीं है। विद्वानों को फुसलाया जाना ज्यादा बड़ा संकट दिख रहा है। अगर वाकई ऐसा हो रहा होगा तो यह अंदेशा भी है कि यह तबका आदर्श साध्य के लिए घोर अनैतिकता के उपाय को सही साबित करने के काम पर लगा दिखे। तब भी इतिहास हमें यकीन दिलाता है कि नैतिकताशून्य स्थिति कभी नहीं आती। कन्हैया प्रकरण और खुद कन्हैया को सुनने के बाद क्या यह बात सही नहीं लगती...?
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