प्रिय देशवासियों
मैं नहीं जानता कि मैं कैसा हूं, क्या महसूस कर रहा हूं। लेकिन
आपकी बेहतरी की कामना करता हूं। मैं आप का जेएनयू भले ही आज आपको बहुत मजबूर नजर आ
रहा हूं। लेकिन आप वहीं हैं जिसने मुझे देशद्रोही बता कर कटघरे में खड़ा कर दिया
है। मेरे शब्दों से भी मायूसी महसूस कर रहे होंगे आप। हां मैं वही हूं जिस पर नाज करते थे आप। विश्वविद्यालय के तौर पर मेरा पहला फर्ज था कि मैं देश के सभी लोगों के लिए सहनशील, तर्कशील, मानवीय रहूं। लेकिन आज मेरे अपने देशवासी मेरे साथ क्या कर रहे हैं। अपराधियों का गढ़ बताया जा रहा है मुझे।
आखिर मायूस होने का हक तो है मुझे। हां मैं आज रो रहा हूं। मेरी नींव की एक-एक ईंट अपनी मायूसी के आंसुओं में भीग चुकी है। कितने अरमानों से भविष्यों को निखारने के लिए नींव रखी गई थी मेरी। मां-बाप ने
उम्मीदों के साथ अपने बच्चों को मेरे साये में भेजा था। पर आज वही मेरे नाम पर शर्मिंदा हो रहे हैं। कहां गए दुनिया भर में मेरे नाम पर गर्व करने वाले। अाज सब के लिए अनजान क्यों हो गया हूं मैं।
भारतीय संसद ने 22 दिसंबर 1966 में मेरी स्थापना की थी। पर देशद्रोह के अलाव में मेरी
प्रतिष्ठा को खाक कर दिया गया है। मेरे नाम के साथ जुड़ा सबसे अच्छा विद्यालय का
तमगा अपनी चमक खो चुका है। तमाम भविष्यों को यहां मैंने बनते हुए देखा। पर आज मेरे
साथ ही खिलवाड़ हो रहा है। मेरा गुनाह क्या है।
कोई तो बता दो।
दुनिया कह रही है कि मैंने शिक्षा की आड़ में देशद्रोहियों को पैदा किया है। मैंने तो यहां सभी को लोकतंत्र का माहौल दिया था। बोलने की आजादी दी थी वही किया था जो एक विश्वविद्यालय को करना चाहिए। वो कहते है कि मेरी दीवारों पर देशद्रोह की छाप दिखती है। मैं यही कहूंगा कि आपके देखने का चश्मा भले ही बदल गया है लेकिन मेरी दीवारें हमेशा से वही हैं। मैं इस देश के सबसे अच्छे विश्वविद्यालय के तमगे से खुश हूं। फक्र करता हूं इस पर। लेकिन इस देश के लिए शायद एक दाग बन गया हू मैं।
बेबस हूं, लाचार हूं
क्योंकि ये दाग ताउम्र रहने वाला है। कल तक लिखता था कि आपका जेएनयू, पर आज मुझे कोई अपने साथ जोड़ने को तैयार नहीं। अंत में क्या
लिखूं ये समझ नहीं आ रहा। बस ये लिखूंगा कि पता नहीं किसका जेएनयू। बहरहाल मैं आज
भी सबको अपना मानता हूं।
आपका जेएनयू।
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